Bhagavad Gita Chapter 17: श्रद्धा त्रय विभाग योग

Bhagavad Gita (भगवद गीता) का सत्रहवां अध्याय श्रद्धा त्रय विभाग योग है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है कि कैसे मनुष्य की श्रद्धा (faith) उसके स्वभाव और कर्मों को प्रभावित करती है। श्रद्धा को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है—सात्विक, राजसिक, और तामसिक। यह अध्याय यह सिखाता है कि जीवन में श्रद्धा और आस्था का सही उपयोग कैसे किया जाए।

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श्लोकः 1

अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।।17.1।।

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भावार्थ

।।17.1।। अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! जो लोग शास्त्रविधि को त्यागकर (केवल) श्रद्धा युक्त यज्ञ (पूजा) करते हैं, उनकी स्थिति (निष्ठा) कौन सी है ?क्या वह सात्त्विक है अथवा राजसिक या तामसिक ?

17.1 "Arjuna asked: My Lord! Those who do acts of sacrifice, not according to the scriptures but nevertheless with implicit faith, what is their condition? Is it one of Purity, of Passion or of Ignorance?

श्लोकः 2

श्री भगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।।17.2।।

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भावार्थ

।।17.2।। श्री भगवान् ने कहा -- देहधारियों (मनुष्यों) की वह स्वाभाविक (ज्ञानरहित) श्रद्धा तीन प्रकार की - सात्त्विक, राजसिक और तामसिक - होती हैं, उसे तुम मुझसे सुनो।।

17.2 Lord Shri Krishna replied: Man has an inherent faith in one or another of the Qualities -Purity, Passion and Ignorance. Now listen.

श्लोकः 3

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।17.3।।

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भावार्थ

।।17.3।। हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव, संस्कार) के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा वैसा ही उसका स्वरूप होता है।।

17.3 The faith of every man conforms to his nature. By nature he is full of faith. He is in fact what his faith makes him.

श्लोकः 4

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।17.4।।

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भावार्थ

।।17.4।। सात्त्विक पुरुष देवताओं को पूजते हैं और राजस लोग यक्ष और राक्षसों को, तथा अन्य तामसी जन प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं।।

17.4 The Pure worship the true God; the Passionate, the powers of wealth and magic; the Ignorant, the spirits of the dead and of the lower orders of nature.

श्लोकः 5

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।।17.5।।

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भावार्थ

।।17.5।। जो लोग शास्त्रविधि से रहित घोर तप करते हैं तथा दम्भ, अहंकार, काम और राग से भी युक्त होते हैं।।

17.5 Those who practise austerities not commanded by scripture, who are slaves to hypocrisy and egotism, who are carried away by the fury of desire and passion,

श्लोकः 6

कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्।।17.6।।

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भावार्थ

।।17.6।। और शरीरस्थ भूतसमुदाय को तथा मुझ अन्तर्यामी को भी कृश करने वाले अर्थात् कष्ट पहुँचाने वाले जो अविवेकी लोग हैं, उन्हें तुम आसुरी निश्चय वाले जानो।।

17.6 They are ignorant. They torment the organs of the body; and they harass Me also, Who lives within. Know that they are devoted to evil.

श्लोकः 7

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु।।17.7।।

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भावार्थ

।।17.7।। (अपनीअपनी प्रकृति के अनुसार) सब का प्रिय भोजन भी तीन प्रकार का होता है? उसी प्रकार यज्ञ? तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं? उनके भेद को तुम मुझसे सुनो।।

17.7 The food which men enjoy is also threefold, like the ways of sacrifice, austerity and almsgiving. Listen to the distinction.

श्लोकः 8

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।।17.8।।

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भावार्थ

।।17.8।। आयु, सत्त्व (शुद्धि), बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को प्रवृद्ध करने वाले एवं रसयुक्त, स्निग्ध ( घी आदि की चिकनाई से युक्त) स्थिर तथा मन को प्रसन्न करने वाले आहार अर्थात् भोज्य पदार्थ सात्त्विक पुरुषों को प्रिय होते हैं।।

17.8 The foods that prolong life and increase purity, vigour, health, cheerfulness and happiness are those that are delicious, soothing, substantial and agreeable. These are loved by the Pure.

श्लोकः 9

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।17.9।।

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भावार्थ

।।17.9।। कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, अति उष्ण, तीक्ष्ण (तीखे, मिर्च युक्त), रूखे. दाहकारक, दु:ख, शोक और रोग उत्पन्न कारक भोज्य पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।।

17.9 Those in whom Passion is dominant like foods that are bitter, sour, salty, over-hot, pungent, dry and burning. These produce unhappiness, repentance and disease.

श्लोकः 10

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।17.10।।

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भावार्थ

।।17.10।। अर्धपक्व, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी, उच्छिष्ट तथा अपवित्र (अमेध्य) अन्न तामस जनों को प्रिय होता है।।

17.10 The Ignorant love food which is stale, not nourishing, putrid and corrupt, the leavings of others and unclean.

श्लोकः 11

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।।17.11।।

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भावार्थ

।।17.11।। जो यज्ञ शास्त्रविधि से नियन्त्रित किया हुआ तथा जिसे "यह मेरा कर्तव्य है" ऐसा मन का समाधान (निश्चय) कर फल की आकांक्षा नहीं रखने वाले लोगों के द्वारा किया जाता है, वह यज्ञ सात्त्विक है।।

17.11 Sacrifice is Pure when it is offered by one who does not covet the fruit thereof, when it is done according to the commands of scripture, and with implicit faith that the sacrifice is a duty.

श्लोकः 12

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।।17.12।।

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भावार्थ

।।17.12।। हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन ! जो यज्ञ दम्भ के लिए तथा फल की आकांक्षा रख कर किया जाता है, उस यज्ञ को तुम राजस समझो।।

17.12 Sacrifice which is performed for the sake of its results, or for self-glorification - that, O best of Aryans, is the product of Passion.

श्लोकः 13

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।17.13।।

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भावार्थ

।।17.13।। शास्त्रविधि से रहित, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों, बिना दक्षिणा और बिना श्रद्धा के किये हुए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।।

17.13 Sacrifice that is contrary to scriptural command, that is unaccompanied by prayers or gifts of food or money, and is without faith - that is the product of Ignorance.

श्लोकः 14

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।17.14।।

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भावार्थ

।।17.14।। देव, द्विज (ब्राह्मण), गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, शौच, आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है।।

17.14 Worship of God and the Master; respect for the preacher and the philosopher; purity, rectitude, continence and harmlessness - all this is physical austerity.

श्लोकः 15

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।17.15।।

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भावार्थ

।।17.15।। जो वाक्य (भाषण) उद्वेग उत्पन्न करने वाला नहीं है, जो प्रिय, हितकारक और सत्य है तथा वेदों का स्वाध्याय अभ्यास वाङ्मय (वाणी का) तप कहलाता है।।

17.15 Speech that hurts no one, that is true, is pleasant to listen to and beneficial, and the constant study of the scriptures - this is austerity in speech.

श्लोकः 16

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।

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भावार्थ

।।17.16।। मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन आत्मसंयम और अन्त:करण की शुद्धि यह सब मानस तप कहलाता है।।

17.16 Serenity, kindness, silence, self-control and purity - this is austerity of mind.

श्लोकः 17

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्ित्रविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।17.17।।

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भावार्थ

।।17.17।। फल की आकांक्षा न रखने वाले युक्त पुरुषों के द्वारा परम श्रद्धा से किये गये उस पूर्वोक्त त्रिविध तप को सात्त्विक कहते हैं।।

17.17 These threefold austerities performed with faith, and without thought of reward, may truly be accounted Pure.

श्लोकः 18

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।17.18।।

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भावार्थ

।।17.18।। जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल दम्भ (पाखण्ड) से ही किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक तप यहाँ राजस कहा गया है।।

17.18 Austerity coupled with hypocrisy or performed for the sake of self-glorification, popularity or vanity, comes from Passion, and its result is always doubtful and temporary.

श्लोकः 19

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्।।17.19।।

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भावार्थ

।।17.19।। जो तप मूढ़तापूर्वक स्वयं को पीड़ित करते हुए अथवा अन्य लोगों के नाश के लिए किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।।

17.19 Austerity done under delusion, and accompanied with sorcery or torture to oneself or another, may be assumed to spring from Ignorance.

श्लोकः 20

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।17.20।।

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भावार्थ

।।17.20।। "दान देना ही कर्तव्य है" - इस भाव से जो दान योग्य देश, काल को देखकर ऐसे (योग्य) पात्र (व्यक्ति) को दिया जाता है, जिससे प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं होती है, वह दान सात्त्विक माना गया है।।

17.20 The gift which is given without thought of recompense, in the belief that it ought to be made, in a fit place, at an opportune time and to a deserving person - such a gift is Pure.

श्लोकः 21

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।17.21।।

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भावार्थ

।।17.21।। और जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के उद्देश्य से अथवा फल की कामना रखकर दिया जाता हैं, वह दान राजस माना गया है।।

17.21 That which is given for the sake of the results it will produce, or with the hope of recompense,or grudgingly - that may truly be said to be the outcome of Passion.

श्लोकः 22

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।।17.22।।

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भावार्थ

।।17.22।। जो दान बिना सत्कार किये, अथवा तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देशकाल में, कुपात्रों के लिए दिया जाता है, वह दान तामस माना गया है।।

17.22 And that which is given at an unsuitable place or time or to one who is unworthy, or with disrespect or contempt - such a gift is the result of Ignorance.

श्लोकः 23

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।17.23।।

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भावार्थ

।।17.23।। 'ऊँ, तत् सत्' ऐसा यह ब्रह्म का त्रिविध निर्देश (नाम) कहा गया है; उसी से आदिकाल में (पुरा) ब्राहम्ण, वेद और यज्ञ निर्मित हुए हैं।।

17.23 Om Tat Sat' is the triple designation of the Eternal Spirit, by which of old the Vedic Scriptures, the ceremonials and the sacrifices were ordained.

श्लोकः 24

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।।17.24।।

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भावार्थ

।।17.24।। इसलिए, ब्रह्मवादियों की शास्त्र प्रतिपादित यज्ञ, दान और तप की क्रियायें सदैव ओंकार के उच्चारण के साथ प्रारम्भ होती हैं।।

17.24 Therefore all acts of sacrifice, gifts and austerities, prescribed by the scriptures, are always begun by those who understand the Spirit with the word Om.

श्लोकः 25

तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि:।।17.25।।

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भावार्थ

।।17.25।। 'तत्' शब्द का उच्चारण कर, फल की इच्छा नहीं रखते हुए, मुमुक्षुजन यज्ञ, तप, दान आदि विविध कर्म करते हैं।।

17.25 Those who desire deliverance begin their acts of sacrifice, austerity or gift with the word Tat' (meaning That'), without thought of reward.

श्लोकः 26

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।17.26।।

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भावार्थ

।।17.26।। हे पार्थ ! सत्य भाव व साधुभाव में 'सत्' शब्द का प्रयोग किया जाता है, और प्रशस्त (श्रेष्ठ, शुभ) कर्म में 'सत्' शब्द प्रयुक्त होता है।।

17.26 Sat' means Reality or the highest Good, and also, O Arjuna, it is used to mean an action of exceptional merit.

श्लोकः 27

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।17.27।।

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भावार्थ

।।17.27।। यज्ञ, तप और दान में दृढ़ स्थिति भी सत् कही जाती है, और उस (परमात्मा) के लिए किया गया कर्म भी सत् ही कहलाता है।।

17.27 Conviction in sacrifice, in austerity and in giving is also called Sat.' So too an action done only for the Lord's sake.

श्लोकः 28

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।17.28।।

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भावार्थ

।।17.28।। हे पार्थ ! जो यज्ञ, दान, तप और कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाता है, वह 'असत्' कहा जाता है; वह न इस लोक में (इह) और न मरण के पश्चात् (उस लोक में) लाभदायक होता है।।

17.28 Whatsoever is done without faith, whether it be sacrifice, austerity or gift or anything else, as called Asat' (meaning Unreal') for it is the negation of Sat,' O Arjuna! Such an act has no significance, here or hereafter."

मुख्य सन्देश:

अध्याय का उद्देश्य:

Bhagavad Gita Chapter 17 (Bhagwat Geeta) यह सिखाता है कि मनुष्य की श्रद्धा और कर्म उसके स्वभाव को दर्शाते हैं। सात्विक जीवन शैली अपनाकर और निःस्वार्थ भक्ति के माध्यम से ईश्वर के करीब पहुँचना ही मानव जीवन का उद्देश्य है।

Bhagavad Gita All Adhay
Bhagwat Geeta Chapter 17