भगवद गीता अध्याय 1: अर्जुन विषाद योग

भगवद गीता का पहला अध्याय "अर्जुन विषाद योग" के नाम से जाना जाता है। इस अध्याय में महाभारत के युद्ध के प्रारंभिक क्षणों का वर्णन किया गया है, जब अर्जुन युद्ध के मैदान में अपने रिश्तेदारों, गुरुओं और मित्रों को देखकर मानसिक द्वंद्व में फंस जाते हैं।

भगवद गीता का पहला अध्याय अर्जुन विशाद योग उन पात्रों और परिस्थितियों का परिचय कराता है जिनके कारण पांडवों और कौरवों के बीच महाभारत का महासंग्राम हुआ। यह अध्याय उन कारणों का वर्णन करता है जिनके कारण भगवद गीता का ईश्वरावेश हुआ। जब महाबली योद्धा अर्जुन दोनों पक्षों पर युद्ध के लिए तैयार खड़े योद्धाओं को देखते हैं तो वह अपने ही रिश्तेदारों एवं मित्रों को खोने के डर तथा फलस्वरूप पापों के कारण दुखी और उदास हो जाते हैं। इसलिए वह श्री कृष्ण को पूरी तरह से आत्मसमर्पण करते हैं।

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अर्जुन अपने कर्तव्यों को लेकर संशय में पड़ जाते हैं और युद्ध करने से मना कर देते हैं। वह सोचते हैं कि अपनों का संहार करने से उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा। अर्जुन के इस मानसिक कष्ट को "विषाद" कहा गया है। इस विषाद के कारण वह भगवान श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन की मांग करते हैं।

श्लोकः 1

"धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।"

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भावार्थ

।।1.1।।धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध के इच्छुक (युयुत्सव:) मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

1.1 The King Dhritarashtra asked: "O Sanjaya! What happened on the sacred battlefield of Kurukshetra, when my people gathered against the Pandavas?"

श्लोकः 2

"सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्।।1.2।।"

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भावार्थ

।।1.2।।संजय ने कहा -- पाण्डव-सैन्य की व्यूह रचना देखकर राजा दुर्योधन ने आचार्य द्रोण के पास जाकर ये वचन कहे।

1.2 Sanjaya replied: "The Prince Duryodhana, when he saw the army of the Pandavas paraded, approached his preceptor Guru Drona and spoke as follows:

श्लोकः 3

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।1.3।।

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भावार्थ

।।1.3।।हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र (धृष्टद्द्युम्न) द्वारा व्यूहाकार खड़ी की गयी पाण्डु पुत्रों की इस महती सेना को देखिये।

1.3 Revered Father! Behold this mighty host of the Pandavas, paraded by the son of King Drupada, thy wise disciple.

श्लोकः 4

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।1.4।।

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भावार्थ

।।1.4।।इस सेना में महान् धनुर्धारी शूर योद्धा है , जो युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं , जैसे -- युयुधान, विराट तथा महारथी राजा द्रुपद।

1.4 In it are heroes and great bowmen; the equals in battle of Arjuna and Bheema, Yuyudhana, Virata and Drupada, great soldiers all;

श्लोकः 5

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।1.5।।

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भावार्थ

।।1.5।।धृष्टकेतु, चेकितान, बलवान काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य।

1.5 Dhrishtaketu, Chekitan, the valiant King of Benares, Purujit, Kuntibhoja, Shaibya - a master over many;

श्लोकः 6

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।1.6।।

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भावार्थ

।।1.6।।पराक्रमी युधामन्यु, बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र (अभिमन्यु) और द्रोपदी के पुत्र -- ये सब महारथी हैं।

1.6 Yudhamanyu, Uttamouja, Soubhadra and the sons of Droupadi, famous men.

श्लोकः 7

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।1.7।।

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भावार्थ

।।1.7।।हे द्विजोत्तम ! हमारे पक्ष में भी जो विशिष्ट योद्धागण हैं , उनको आप जान लीजिये; आपकी जानकारी के लिये अपनी सेना के नायकों के नाम मैं आपको बताता हूँ।

1.7 Further, take note of all those captains who have ranged themselves on our side, O best of Spiritual Guides! The leaders of my army. I will name them for you.

श्लोकः 8

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।1.8।।

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भावार्थ

।।1.8।।एक तो स्वयं आप, भीष्म, कर्ण, और युद्ध विजयी कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र है।

1.8 You come first; then Bheeshma, Karna, Kripa, great soldiers; Ashwaththama, Vikarna and the son of Somadhatta;

श्लोकः 9

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।1.9।।

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भावार्थ

।।1.9।।मेरे लिए प्राण त्याग करने के लिए तैयार, अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित तथा युद्ध में कुशल और भी अनेक शूर वीर हैं।

1.9 And many others, all ready to die for my sake; all armed, all skilled in war.

श्लोकः 10

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।1.10।।

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भावार्थ

।।1.10।।भीष्म के द्वारा हमारी रक्षित सेना अपर्याप्त है; किन्तु भीम द्वारा रक्षित उनकी सेना पर्याप्त है अथवा, भीष्म के द्वारा रक्षित हमारी सेना अपरिमित है किन्तु भीम के द्वारा रक्षित उनकी सेना परिमित ही है।

1.10 Yet our army seems the weaker, though commanded by Bheeshma; their army seems the stronger, though commanded by Bheema.

श्लोकः 11

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।1.11।।

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भावार्थ

।।1.11।।विभिन्न मोर्चों पर अपने-अपने स्थान पर स्थित रहते हुए आप सब लोग भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।

1.11 Therefore in the rank and file, let stand firm in their posts, according to battalions; and all you generals about Bheeshma.

श्लोकः 12

तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।।1.12।।

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भावार्थ

।।1.12।।उस समय कौरवों में वृद्ध, प्रतापी पितामह भीष्म ने उस (दुर्योधन) के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये उच्च स्वर में गरज कर शंखध्वनि की।

1.12 Then to enliven his spirits, the brave Grandfather Bheeshma, eldest of the Kuru-clan, blew his conch, till it sounded like a lion's roar.

श्लोकः 13

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।1.13।।

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भावार्थ

।।1.13।।तत्पश्चात् शंख, नगारे, ढोल व शृंगी आदि वाद्य एक साथ ही बज उठे, जिनका बड़ा भयंकर शब्द हुआ।

1.13 And immediately all the conches and drums, the trumpets and horns, blared forth in tumultuous uproar.

श्लोकः 14

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।।1.14।।

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भावार्थ

।।1.14।।इसके उपरान्त श्वेत अश्वों से युक्त भव्य रथ में बैठे हुये माधव (श्रीकृष्ण) और पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी अपने दिव्य शंख बजाये।

1.14 Then seated in their spacious war chariot, yoked with white horses, Lord Shri Krishna and Arjuna sounded their divine shells.

श्लोकः 15

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः।।1.15।।

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भावार्थ

।।1.15।।भगवान् हृषीकेश ने पांचजन्य, धनंजय (अर्जुन) ने देवदत्त तथा भयंकर कर्म करने वाले भीम ने पौण्डू नामक महाशंख बजाया।

1.15 Lord Shri Krishna blew his Panchajanya and Arjuna his Devadatta, brave Bheema his renowned shell, Poundra.

श्लोकः 16

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।1.16।।

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भावार्थ

।।1.16।।कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्त विजय नामक शंख और नकुल व सहदेव ने क्रमश: सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये।

1.16 The King Dharmaraja, the son of Kunti, blew the Anantavijaya, Nakalu and Sahadeo, the Sugosh, and Manipushpaka, respectively.

श्लोकः 17

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।1.17।।

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भावार्थ

।।1.17।।श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, राजा विराट और अजेय सात्यकि।

1.17 And the Maharaja of Benares, the great archer, Shikhandi, the great soldier, Dhrishtayumna, Virata and Satyaki, the invincible,

श्लोकः 18

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्।।1.18।।

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भावार्थ

।।1.18।।हे राजन् ! राजा द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र और महाबाहु सौभद्र (अभिमन्यु) इन सब ने अलग-अलग शंख बजाये।

1.18 And O King! Drupada, the sons of Droupadi and Soubhadra, the great soldier, blew their conches.

श्लोकः 19

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।1.19।।

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भावार्थ

।।1.19।।वह भयंकर घोष आकाश और पृथ्वी पर गूँजने लगा और उसने धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय विदीर्ण कर दिये।

1.19 The tumult rent the hearts of the sons of Dhritarashtra, and violently shook heaven and earth with its echo.

श्लोकः 20

अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।1.20।।

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भावार्थ

।।1.20।।हे महीपते ! इस प्रकार जब युद्ध प्रारम्भ होने वाला ही था कि कपिध्वज अर्जुन ने धृतराष्ट्र के पुत्रों को स्थित देखकर धनुष उठाकर भगवान् हृषीकेश से ये शब्द कहे।

1.20 Then beholding the sons of Dhritarashtra, drawn up on the battle- field, ready to fight, Arjuna, whose flag bore the Hanuman,

श्लोकः 21

अर्जुन उवाच
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।1.21।।

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भावार्थ

।।1.21।।अर्जुन ने कहा -- हे! अच्युत मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कीजिये।

1.21 Raising his bow, spoke this to the Lord Shri Krishna: O Infallible! Lord of the earth! Please draw up my chariot betwixt the two armies,

श्लोकः 22

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।।1.22।।

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भावार्थ

।।1.22।।जिससे मैं युद्ध की इच्छा से खड़े इन लोगों का निरीक्षण कर सकूँ कि इस युद्ध में मुझे किनके साथ युद्ध करना है।

1.22 So that I may observe those who must fight on my side, those who must fight against me;

श्लोकः 23

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।1.23।।

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भावार्थ

।।1.23।।दुर्बुद्धि धार्तराष्ट्र (दुर्योधन) का युद्ध में प्रिय चाहने वाले जो ये राजा लोग यहाँ एकत्र हुए हैं, उन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा।

1.23 And gaze over this array of soldiers, eager to please the sinful sons of Dhritarashtra."

श्लोकः 24

संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।1.24।।

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भावार्थ

।।1.24।।संजय ने कहा -- हे भारत (धृतराष्ट्र) ! अर्जुन के इस प्रकार कहने पर भगवान् हृषीकेश ने दोनों सेनाओं के मध्य उत्तम रथ को खड़ा करके।

1.24 Sanjaya said: "Having listened to the request of Arjuna, Lord Shri Krishna drew up His bright chariot exactly in the midst between the two armies,

श्लोकः 25

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।1.25।।

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भावार्थ

।।1.25।। भीष्म, द्रोण तथा पृथ्वी के समस्त शासकों के समक्ष उन्होंने कहा, "हे पार्थ यहाँ एकत्र हुये कौरवों को देखो"।

1.25 Whither Bheeshma and Drona had led all the rulers of the earth, and spoke thus: O Arjuna! Behold these members of the family of Kuru assembled.

श्लोकः 26

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृ़नथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृ़न्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।1.26।।

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भावार्थ

।।1.26।।वहाँ अर्जुन ने उन दोनों सेनाओं में खड़े पिता के भाइयों, पितामहों, आचार्यों, मामों, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, श्वसुरों और सुहृदों को भी देखा।

1.26 There Arjuna noticed fathers, grandfathers, uncles, cousins, sons, grandsons, teachers, friends;

श्लोकः 27

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।1.27।।

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भावार्थ

।।1.27।।इस प्रकार उन सब बन्धु-बान्धवों को खड़े देखकर कुन्ती पुत्र अर्जुन का मन करुणा से भर गया और विषादयुक्त होकर उसने यह कहा।

1.27 Fathers-in-law and benefactors, arrayed on both sides. Arjuna then gazed at all those kinsmen before him.

श्लोकः 28

अर्जुन उवाच
कृपया परयाऽऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।1.28।।

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भावार्थ

।।1.28 ।।अर्जुन बोले: - हे कृष्ण! जब मैंने युद्ध के लिए एकत्रित अपने स्वजनों को देखा, तो मैं अत्यधिक करुणा से अभिभूत हो गया और दुखी होकर यह कहा।

1.28 And his heart melted with pity and sadly he spoke: O my Lord! When I see all these, my own people, thirsting for battle,

श्लोकः 29

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।1.29।।

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भावार्थ

।।1.29।।मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मेरा मुख सूख रहा है। मेरे शरीर में कंपकंपी हो रही है और रोमांच (रोम खड़े हो जाना) उत्पन्न हो रहा है।

श्लोकः 30

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।1.30।।

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भावार्थ

।।1.30।।मेरे हाथ से गाण्डीव (धनुष) गिर रहा है और त्वचा जल रही है। मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, और मैं खड़े रहने में असमर्थ हूँ।

1.30 The bow Gandeeva slips from my hand, and my skin burns. I cannot keep quiet, for my mind is in tumult.

श्लोकः 31

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।1.31।।

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भावार्थ

।।1.31।।हे केशव ! मैं शकुनों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ और युद्ध में (आहवे) अपने स्वजनों को मारकर कोई कल्याण भी नहीं देखता हूँ।

1.31 The omens are adverse; what good can come from the slaughter of my people on this battlefield?

श्लोकः 32

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।1.32।।

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भावार्थ

।।1.32।।हे कृष्ण ! मैं न विजय चाहता हूँ, न राज्य और न सुखों को ही चाहता हूँ। हे गोविन्द ! हमें राज्य से अथवा भोगों से और जीने से भी क्या प्रयोजन है?।

1.32 Ah my Lord! I crave not for victory, nor for the kingdom, nor for any pleasure. What were a kingdom or happiness or life to me,

श्लोकः 33

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।1.33।।

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भावार्थ

।।1.33।।हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि की इच्छा है, वे ही लोग धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।

1.33 When those for whose sake I desire these things stand here about to sacrifice their property and their lives:

श्लोकः 34

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।1.34।।

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भावार्थ

।।1.34।।वे लोग गुरुजन, ताऊ, चाचा, पुत्र, पितामह, श्वसुर, पोते, श्यालक तथा अन्य सम्बन्धी हैं।

1.34 Teachers, fathers and grandfathers, sons and grandsons, uncles, father-in-law, brothers-in-law and other relatives.

श्लोकः 35

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।1.35।।

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भावार्थ

।।1.35।।हे मधुसूदन ! इनके मुझे मारने पर अथवा त्रैलोक्य के राज्य के लिये भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए कहना ही क्या है।

1.35 I would not kill them, even for three worlds; why then for this poor earth? It matters not if I myself am killed.

श्लोकः 36

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।1.36।।

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भावार्थ

।।1.36।।हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों की हत्या करके हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें केवल पाप ही लगेगा।

1.36 My Lord! What happiness can come from the death of these sons of Dhritarashtra? We shall sin if we kill these desperate men.

श्लोकः 37

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।1.37।।

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भावार्थ

।।1.37।।हे माधव ! इसलिये अपने बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना हमारे लिए योग्य नहीं है, क्योंकि स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे।

1.37 We are worthy of a nobler feat than to slaughter our relatives - the sons of Dhritarashtra; for, my Lord, how can we be happy of we kill our kinsmen?

श्लोकः 38

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।1.38।।

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भावार्थ

।।1.38।।यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुये ये लोग कुलनाशकृत दोष और मित्र द्रोह में पाप नहीं देखते हैं।

1.38 Although these men, blinded by greed, see no guilt in destroying their kin, or fighting against their friends,

श्लोकः 39

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।1.39।।

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भावार्थ

।।1.39।।परन्तु, हेे जनार्दन ! कुलक्षय से होने वाले दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से विरत होने के लिए क्यों नहीं सोचना चाहिये।

1.39 Should not we, whose eyes are open, who consider it to be wrong to annihilate our house, turn away from so great a crime?

श्लोकः 40

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।1.40।।

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भावार्थ

।।1.40।।कुल के नष्ट होने से सनातन धर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्म नष्ट होने पर सम्पूर्ण कुल को अधर्म (पाप) दबा लेता है।

1.40 The destruction of our kindred means the destruction of the traditions of our ancient lineage, and when these are lost, irreligion will overrun our homes.

श्लोकः 41

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः।।1.41।।

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भावार्थ

।।1.41।।हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं, और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।

1.41 When irreligion spreads, the women of the house begin to stray; when they lose their purity, adulteration of the stock follows.

श्लोकः 42

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।1.42।।

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भावार्थ

।।1.42।।वह वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने का कारण बनता है। पिण्ड और जलदान की क्रिया से वंचित इनके पितर भी नरक में गिर जाते हैं।

1.42 Promiscuity ruins both the family and those who defile it; while the souls of our ancestors droop, through lack of the funeral cakes and ablutions.

श्लोकः 43

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।1.43।।

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भावार्थ

।।1.43।।इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघाती दोषों से सनातन कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।

1.43 By the destruction of our lineage and the pollution of blood, ancient class traditions and family purity alike perish.

श्लोकः 44

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।1.44।।

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भावार्थ

।।1.44।।हे जनार्दन ! हमने सुना है कि जिनके यहां कुल धर्म नष्ट हो जाता है, उन मनुष्यों का अनियत काल तक नरक में वास होता है।

1.44 The wise say, my Lord, that they are forever lost, whose ancient traditions are lost.

श्लोकः 45

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।1.45।।

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भावार्थ

।।1.45।।अहो ! शोक है कि हम लोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि इस राज्यसुख के लोभ से अपने कुटुम्ब का नाश करने के लिये तैयार हो गये हैं।

1.45 Alas, it is strange that we should be willing to kill our own countrymen and commit a great sin, in order to enjoy the pleasures of a kingdom.

श्लोकः 46

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।1.46।।

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भावार्थ

।।1.46।।यदि मुझ शस्त्ररहित और प्रतिकार न करने वाले को ये शस्त्रधारी कौरव रण में मारें, तो भी वह मेरे लिये कल्याणकारक होगा।

1.46 If, on the contrary, the sons of Dhritarashtra, with weapons in their hand, should slay me, unarmed and unresisting, surely that would be better for my welfare!"

श्लोकः 47

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।1.47।।

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भावार्थ

।।1.47।।संजय ने कहा -- रणभूमि (संख्ये) में शोक से उद्विग्न मनवाला अर्जुन इस प्रकार कहकर बाणसहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया।

1.47 Sanjaya said: "Having spoken thus, in the midst of the armies, Arjuna sank on the seat of the chariot, casting away his bow and arrow; heartbroken with grief."

मुख्य सन्देश:

अर्जुन विषाद योग यह सिखाता है कि जीवन में जब भी हमें कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं, तब हमें सही मार्गदर्शन और धैर्य की आवश्यकता होती है। यह अध्याय अर्जुन के मनोबल और उनकी नैतिक दुविधा को दर्शाता है, जो आगे के अध्यायों में श्रीकृष्ण द्वारा सुलझाया जाएगा।

Bhagavad Gita All Adhay
Bhagwat Geeta Chapter 1